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बलात्कृता का हलफ़नामा / विनोद दास

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नहीं,नहीं,बिल्कुल नहीं
इस समय मैं कत्तई नहीं रोऊँगी
आँसू बहाकर मैं भीगी माचिस नहीं बनना चाहती
अपनी बेतरतीबवार ज़िन्दगी की तरह
मैं कुछ बेतरतीबवार बताना चाहती हूँ

प्यार से नहीं भूल से पैदा हुई संतान के लिए
खतरा अधिकतर आसपास होता है
और इसकी शुरुआत
बहुत पहले मेरे घर से ही हो चुकी थी
अक्षर ज्ञान के पहले से ही
मैं पढ़ने लगी थी नेत्रहीनों की तरह कामातुर स्पर्श
जब मामा चाचा सौतले भाई
रिश्तों की आड़ में बन जाते थे मर्द
जलेबी,लेमनचूस या अन्धेरे के खेलों के खतरों का
मुझे तो क्या
मेरी माँ को भी तब तक पता न चलता
जब तक उल्टियाँ नहीं होतीं
या खून से लथपथ नहीं मिलता मेरा अन्तर्वस्त्र

क्या यह वासना थी
वासना क्या होती है
इतनी अल्पायु में
भला, मैं क्या जानती
जैसे नहीं जानती थी वह पागल स्त्री
जो उभरे बड़े पेट के साथ देश के हर शहर में
किसी चौराहे के पास जूठे पत्तल चाटती हुई मिल ही जाती है

बस ! जब वे छूते
तो लगता कि कोई छिपकली
मेरे अंगों पर रेंग रही है
नितम्बों पर चिकोटियां काट रही हैं चींटियाँ
बस- ट्रेन की भीड़ में
मेले-बाज़ार की धक्का मुक्की में
वे बिलबिलाते तिलचट्टे की तरह मुझे छूते
छूते सरसराते केंचुए की तरह

बलात्कार
सिर्फ़ लिंग से ही नहीं होते
आँखों से भी होते
सृष्टि में सबसे अधिक बलात्कार
कल्पना में होते

इनके अनन्त चेहरे थे
कोई गणित ट्यूटर के वेश में आता
अकवार के बहाने नोचने लगता वक्ष
तो कोई संगीत गुरु तबले की तरह
बजाने लगता मेरी देह
कोई तरक्की का झाँसा देकर
केबिन में चबा लेता होंठ
कोई अभिनेत्री बनाने की लालच देकर
खेलता देह-प्रेम का खेल

बाबा-फ़कीरों की तो बात ही अलग थी
सन्तान सुख देने के बहाने
उतार देता था अंग से पूरे वस्त्र
शौहर के बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगी
अवमानना का मुक़दमा चल जाएगा मुझ पर
न्यायालय भी देता है शौहर को बलात्कार की छूट
जलती सिगरेट के दाग की तरह
मेरी आत्मा पर हैं इनके दंश के इतने पक्के निशान
जो अन्तिम समय मेरी अस्थियों के साथ जाएँगे

ग़रीब-दलित सखियों के बारे में क्या कहूँ
काँपता है कलेजा
ये सखियाँ ऊँची जातियों के लिए हैं नाबदान
फिर भी आम की मुफ़्त चटनी से भी ज़्यादा
उन्हें लगती हैं इनकी देह चटपटी
होती है खेत-खलिहान में रौंदने के लिए केलि बिस्तर
ना- नुकुर या चूँ -चरा करने पर
बन जाती है उनके प्रतिशोध का सामान

आपके किताबी लफ्ज़ों में कहूँ
तो इनकी ख़ामोश चीख़ों से
लिखा जाता है उनके वर्चस्व और पौरुष का इतिहास
गाय से भी कम है
इनका महत्व
वह चाहे घर में झाड़ू-पोछा करती छमिया हो
या फसल काटती धनिया हो
इनकी शिकायत
अक्सर थाने के बाहर छटपटाकर तोड़ देती अपना दम

हुज़्ज़त करने पर
लॉकअप में पिटते हैं नाते रिश्तेदार
मन्द-मन्द घिनौनी मुस्कान के साथ
कचहरी में पूछते वक़ील-जज ऐसे घृणित सवाल
गोया भरी सभा में आईने के सामने
फिर से किया जा रहा हो
शाब्दिक बलात्कार

कोई इन कुलिच्छनों के साथ नहीं आता
ना पंचायत ना राजनैतिक दल
इनके लिए राजधानी की सड़कों पर
कोई मोमबत्ती मार्च भी नहीं निकालता
टीवी अख़बार के संवाददाता
महामहिम या अभिनेता के फ़ोटो शूट में रहते व्यस्त
वे सांसद भी रहतीं चुप
जो संसद में छाती पीटती थी
एक गर्भवती हथिनी के मरने पर

मैं आपको कुछ-कुछ समझने लगी हूँ
आप केवल देखना चाहते हैं
मेरी आँखों में
डर का काँपता पानी
मेरी आज़ादी
आपके डर के भीतर क़ैद है

चाहे मेरी पोशाक हो या नौकरी
या हो स्कूल का बस्ता
मन से शादी
या प्रेम का जिक्र करना
तो मेरे लिए कुफ़्र है
इसके लिए आपकी पंचायतें बाँटती ही रहती हैं
चरित्रहीनता का प्रमाणपत्र
मैं जानती हूँ
शौचालय में मेरी गन्दी-गन्दी तस्वीर बनाकर
गन्दी-गन्दी गालियाँ नवाज़कर
तोड़ना चाहते हैं आप
मेरा मनोबल
अब मैं इस डर के पार चली गई हूँ

वैसे भी आपकी नज़रों में हो गई हूँ अशुद्ध
हालाँकि ऐसी पवित्रता पर मैं थूकती हूँ
दरअसल मेरी योनि
मेरी देह का सबसे पवित्र अंग है
हर माह रक्तस्नान से होता रहता है पवित्र
जहाँ से हुआ है
इस पृथ्वी पर तुम्हारा जन्म

मेरी मौत की प्रतीक्षा करना बेकार है
जीवन बहुत सुन्दर है
मोबाइल के अश्लील विडिओ से बनी
आपकी घटिया सोच के लिए
गले में दुपट्टा बाँधकर नहीं दूँगी अपनी जान

हाँ ! आपके लिए एक और आख़िरी बात
मेरा मन एक किले जैसा दुर्भेध है
जो किसी भी आक्रमण से नहीं जीता जा सकता
लेकिन मासूम है इतना
कि एक सुन्दर फूल पेश करने पर भी हार देता है
अपना सर्वस्व