भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बसंत 2 / श्रीनाथ सिंह

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:01, 4 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनाथ सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आया बच्चों, बसंत आया
सब पेड़ों में फूल फुलाया।
फिर से नई हुई हरियाली
दुल्हिन सी लचकी तरु डाली
भौंरों के दल के दल आये।
संग में मधु -मक्खियाँ लिवाये
मस्त हुयें हैं सब भन भन में
बंशी सी बजती है वन में।
कूक रही है कोयल काली
बजा रहें हैं लड़के ताली।
और कूक वैसी ही भरते।
खूब नकल कोयल की करते
मह मह गलियां महक रही हैं।
चह चह चिड़ियाँ चहक रही हैं।
बढ़ी उमंगें सब के मन में
दूना बल आया है तन में।
हे बसन्त, ऋतुओं के राजा।
मुझको इतनी बात सिखा जा
नित मैं फूलों सा मुस्काऊं।
सुख से सब का मन बहलाऊं।