भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत पानी बरसता है / मुनव्वर राना

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:30, 5 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है
 
यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है

चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है
मगर वो शख़्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है

बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं ?
कुएँ में छुप के क्यों आख़िर ये नेकी बैठ जाती है ?

नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है
समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है

सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है

वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मोहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है