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बहुत से दर्द थे पर ख़ुद को जोड़ कर रक्खा / सय्यद काशिफ़ रज़ा

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बहुत से दर्द थे पर ख़ुद को जोड़ कर रक्खा
वो मैं कि आतिश ओ आहन में जिस ने सर रक्खा

मैं वो हूँ जिस ने तआकुब में अपने मौत रक्खी
और अपने सर को सदा उस की मार पर रक्खा

नशात ओ फ़त्ह मिरी दस्तरस में थे लेकिन
किताब-ए-उम्र में दुख दर्द बेश-तर रक्खा

मिले हुए थे मुझे चाहतों के दर कितने
मगर मैं वो कि हवाओं पे मुस्तक़र रक्खा

बहुत से लोग मिरे वास्ते थे दस्त-कुशा
मगर नज़र में तिरा ही दयार ओ दर रक्खा

कभी हुई ही नहीं मुझ को बे-घरी महसूस
ख़ुद अपने पाँव पे जब से है अपना घर रक्खा

गवाह हैं मिरे मिसरों के बस्त-ओ-दर ‘काशिफ़’
चुना जो हर्फ़ उसे कर के बारवर रक्खा