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बाबूजी दुखी हैं कि मरने वाले पैसा लेते हैं / मनोज कुमार झा

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पंडिज्जी ने कहा तो कहा मगर रहने दो इस खेत को
पूजापाठ की सुई निकाल नहीं पाती कलेजे का हर काँटा
बाढ़ में बह तो गया मगर यहीं तो था जोड़ा मंदिर
किसी तरह बचा लो मेरे माँ-बाप के प्रेम की आखिरी निशानी
जल रहे पुल का आखिरी पाया
कहते रहे पिताजी मगर बिक ही गया वो भी आखिर और
मोटर-साइकिल दी गई जीजाजी को जो ठीक-ठाक ही चल रही है
कुछ ज्यादा धुआँ फेंकती कभी-कभार।

उस टुकड़े में हल्दी ही लगने दो हर साल
नहीं पाओगे हल्दी के पत्तों का ये हरापन किसी और खेत में
शीशम तो कोई पेड़ ही नहीं कि जब बढ़ जाए तो
बाँहों में भरकर मापते हैं मोटाई कि कितने में बिकेंगे कटने पर
बार-बार समझाते रहे मगर ब्लॉक से लाकर रोप दी गईं खूँटियाँ
फिर वे कभी नहीं गए उधर और हमने भी डाला डेरा शहर में
अब विचारते रहते हैं कि जब और बुढ़ा जाएँगे बाबूजी तो खींच लाएँगे यहीं।

एक दिन हाँफते आये दूर से ही पानी माँगते
दो घूँट पानी पीते चार साँस बोलते जाते कि जब भी जाओ दिसावर
सत्तू ले जाओ गुड़ ले जाओ, न भी ले जाओ मगर जरूर लेके जाओ
घर लौटने की हिम्मत हालाँकि घरमुँहा रास्ते भी रंग बदलते रहते हैं।
सच कह रहे थे रहमानी मियाँ कि सामान कितने भी करने लगे हों जगर-मगर
आजादी दादी की नइहर से आई पितरिहा परात की तरह खाली ढ़न-ढ़न बजती है।
वो लड़का बड़ा अच्छा था बाप से भी बेहतर बजाता था बाँसुरी
ताड़ के पत्तों से बनाता था कठपुतली और हर भोज में वही जमाता था दही
पर ये कुछ भी न था काम का उस कोने में जहाँ उसने गाड़ा खंभा
एक त्योहार वाले दिन तोड़ लिया धरती से नाता कमर में बम बाँधकर।
जब से सुनी यह खबर छाती में घूम रहा साइकिल का चक्का
धुकधुकी थमती ही नहीं चार बार पढ़ चुका हनुमान चालीसा
तब से सोच रहा यही लगातार कि जिन्होंने छोड़े घर दुआर
जिन पर टिकी इतनी आँखें
उन्होंने जब किया अपनी ही नाव में छेद तो किनारे बचा क्या सिर्फ पैसा
तो क्या यही मोल आदमी का कि जिंदा रहे तो
पैसा गिनते-भँजाते और मरे तो दो पैसे जोड़कर।