भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाहर-बाहर मेला है / गोपाल कृष्ण शर्मा 'मृदुल'

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:26, 8 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपाल कृष्ण शर्मा 'मृदुल' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाहर-बाहर मेला है।
भीतर बशर अकेला है।।

उसके जैसा और कहाँ,
वह सबसे अलबेला है।।

सत्ता ज्यों ही हाथ लगी,
भाई खुल कर खेला है।।

थाने से न्यायालय तक,
नियमों की अवहेला है।।

अब जीवन में लुत्फ कहाँ,
बस यादों का रेला है।।

ज्ञान गुरु बाँटें किसको,
पीठाधीश्वर चेला है।।

अच्छी ग़ज़ल लगा कहने,
उसने इतना झेला है।।

इश्क नहीं आसान ‘मृदुल’,
इसमें बहुत झमेला है।।