भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाहर की दुनिया लगती है / रमेश तैलंग

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:31, 16 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश तैलंग |अनुवादक= |संग्रह=मेरे...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाहर की दुनिया लगती है
सचमुच कितनी जगर-मगर।
घर के अंदर आते ही पर
हो जाती है खटर-पटर।

अच्छा-भला मूड सबका, पर
जाने क्या हो जाता है।
बिना बात हर कोई एक-
दूसरे पर चिल्लाता है।

टी.वी. का है अजब नजारा,
घंटों चलता जाता है।
जिसके हाथों में रिमोट वो-
‘चुप!चुप!’ कह धमकाता है।

तब लगता है हमको जैसे
पूरा घर हो पागलघर।
सही नहीं जाती जिसमें
बच्चों की थोड़ी बकर-बकर।