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बे-ख़बरी / जमीलुर्रहमान

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ख़ौफ़ अभी जुड़ा न था सिलसिला-ए-कलाम से
हर्फ़ अभी बुझे न थे दहशत-ए-कम-ख़िराम से
संग-ए-मलाल के लिए दिल आस्ताँ हुआ न था
इक़्लीम-ए-ख़्वाब में कहीं कोई ज़ियाँ हुआ न था
निकहत-ए-अब्र-ओ-बाद की मस्ती में डोलते थे घर
साफ़ दिखाई देते थे
उस की गली के सब शजर
गर्द मिसाल-ए-दस्तकें दर पे अभी जमी न थीं
रंग-ए-फ़िराक-ओ-वस्ल की परतें अभी खुली न थीं
ऐसे में थी किसे ख़बर
जब साअत-ए-महताब हो
यूँ भी तो है कि और ही नक़्शा-ए-ख़ाक-ओ-आब हो