भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बे-हुनर साअतों में इक सावल / जमीलुर्रहमान

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:11, 7 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जमाल ओवैसी }} {{KKCatNazm}} <poem> नुज़ूल-ए-कश्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नुज़ूल-ए-कश्फ़ की रह में सफ़ेद दरवाज़े
क़दम-बुरीदा-मुसाफ़िर से पूछते ही रहे
तिरे सफ़र में तो उजले दिनों की बारिश थी
तिरी निगाहों में ख़ुफ़्ता धनक ने करवट ली
बला की नींद में भी हाथ जागते थे तिरे
तमाम पहलू मसाफ़त के सामने थे तिरे
तिरी गवाही पे तो फूल फलने लगते थे
तिरे ही साथ वो मंज़र भी चलने लगते थे
ठहर गए थे जो बाम-ए-ज़वाल पर इक दिन
हँसे थे खुल के जो अहद-ए-कमाल पर इक दिन
तिरे जुनूँ पे क़यामत गुज़र गई कैसे
रियाज़तों की वो रूत बे-समर गई कैसे