भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेवक़्त चेहरा झुर्रियों से भरने लगी है ग़रीबी तूं / राजेश चड्ढा

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:41, 29 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>बेवक़्त चेहरा झुर्रियों से भरने लगी है ग़रीबी तूं है पौध नाम फ़…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेवक़्त चेहरा झुर्रियों से भरने लगी है ग़रीबी तूं
है पौध नाम फ़सल में, धरने लगी है ग़रीबी तूं ।

तू पेट के आईनें में शक़्ल कुचलती है कई दफ़ा
परछाई पर भी ज़ुल्म , करने लगी है गरीबी तूं ।

चांद को भी आकाश में, रोटी समझ के तकती है
अब रूख़ी-सूख़ी चांदनी, निगलने लगी है गरीबी तूं ।

प्यास लगे तो आंसू हैं, ये दरिया तेरा ज़रिया है
अपने पेट की आग़ में, जलने लगी है गरीबी तूं ।

ख़ामोश है और ख़ौफ़ से सहमी हुई सी लगती है
शायद तन्हा लम्हा-लम्हा, मरने लगी है ग़रीबी तूं