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बैचेन कर रहा है हर लम्हा क़ल्ब-ए-मुज़्तर / बेगम रज़िया हलीम जंग

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बैचेन कर रहा है हर लम्हा क़ल्ब-ए-मुज़्तर
रातें गुज़र रहीं हैं करवट बदल बदल कर

होता है शोर जैसा कुछ दिल की धड़कनों में
रूकती है साँस मेरी आहट तेरी समझ कर

मुमकिन नहीं अगर-चे फिर भी ये आरज़ू है
महबूब मुझ को कर ने मैं ख़ाक का हूँ पैकर

ज़र से है जिस को निस्बत मैं वो नहीं हूँ मौला
अपनी नवाज़िशों से झोली फ़क़ीर की भर