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बैठी हैं औरतें विलाप में / सविता सिंह

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बैठी हैं एक साथ
गठरी बन
बिसूरती
रोती विलाप करती स्त्रियां
करतीं शापित पूरे इतिहास को
जिसमें उनके लिए
अंधकार का मरुस्थल बिछा है
बैठी हैं याद करतीं
अपनी महान परंपरा को
जिसमें थी उनकी स्वायत्ता
उनका स्वाभिमान
संप्रभुता थी फैली
आसमान-सी करुणामय तरल
किए आच्छादित तप्त भूतल को
अन्नदात्री वे उपेक्षित नहीं करती थीं
एक भी मनुष्य को

बैठी हैं विस्मृति में डूबे
अपने अतःस्तल से निचोड़तीं अपना ही रक्त
रंगतीं धरती को पटी है जो
अनेक ऐसी कथाओं से
स्तब्ध हो जो
मूक सुनती है उनका विलाप...!