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बैठूँ मैं--किस मुद्रा में? / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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मरूँ? क्लीव, कापुरुष कहाऊँ?
जीयूँ? अपनी ये दोनों ही आँखें खोले-
सब कुछ देखूँ-और कुछ भी कह न पाऊँ?

न मरूँ, न जीऊँ; ओठ की सीऊँ।
स्वाद ले-ले कर, घूँट-घूँट,
जीवन का यह काला-काला-सा प्रतिपल पीयूँ!
दोनों-सिरे-पर-जलते सरकण्डे में बन्दी-
कीट-सा मौन मरण सहूँ?
पुरानी, गीली, गाँठ-गठीली रूई-सा मसक-मसक दहूँ?
हरे-काचे घाव सा रहूँ,
न बहूँ?

कहाँ?
किस तरह?
किस वन में?
कहाँ जा कर?
किस मुद्रा में बैठूँ?
सभी आसन व मुद्राएँ ग्रहण कर ली गई हैं-
ईसा, सुकरात, मीरा, गांधी, रमण ऋषि व अरविंद द्वारा!
तस्कर-युग के अधमरों-अधजलों के लिए-

बची-खुची रह गई है रे क्या कहीं कोई मुद्रा?
मुझे भी चाहिए रे, एक ‘मुद्रा’-
बिलकुल फिट!