भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोलैनीं हेमाणी..... / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:32, 7 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>बोलैनीं हेमाणी..... जिण हाथां सूं थें आ रेत रची है, वां हाथां ई म्ह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बोलैनीं हेमाणी.....
जिण हाथां सूं
थें आ रेत रची है,
वां हाथां ई
म्हारै ऐड़ै उळझ्योड़ै उजाड़ में
कीं तो बीज देंवती!
थकी न थाकै
मांडै आखर,
ढाय-ढायती ई उगटावै
नूंवा अबोट,
कद सूं म्हारो
साव उघाड़ो औ तन
ईं माथै थूं
अ आ ई तो रेख देवती!
सांभ्या अतरा साज,
बिना साजिंदां
रागोळ्यां रंभावै,
वै गूंजां-अनुगूंजां
सूत्योड़ै अंतस नै जा झणकारै
सातूं नीं तो
एक सुरो
एकतारो ई तो थमा देंवती!
जिकै झरोखै
जा-जा झांकूं
दीखै सांप्रत नीलक
पण चारूं दिस
झलमल-झलमल
एकै सागै सात-सात रंग
इकरंगी कूंची ई
म्हारै मन तो फेर देंवती!
जिंयां घड़यो थेंघड़ीज्यो,
नीं आयो रच-रचणो
पण बूझण जोगो तो
राख्यो ई थें
भलै ई मत टीप
ओळियो म्हारो,
रै अणबोली
पण म्हारी रचणारी!
सैन-सैन में
इतरो ई समझादै-
कुण सै अणदीठै री बणी मारफत
राच्योड़ो राखै थूं
म्हारो जग ऐड़ो?

[‘जिण हाथां आ रेत रचीजै’ से ]