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भानु भौंपेलो / भाग 3 / गढ़वाली लोक-गाथा

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

बार बरस को बाटो, तीन रोज मा काटदो।
तख छयो वो माँकाली घोड़ो
रागसी घोड़ौं की पंगत<ref>कतार</ref> बँधी छई।
मांकाली<ref>महाकाल</ref> घोड़ो मरा सगन्ध<ref>मनुष्य गंध</ref> सूंगद,
हे छोरा, कै राज को छई?
कै बैरीन भरमाए, घर की नारीन सन्ताये।
हे मांकाली घोड़ा, मैं कू मदत दियाल,
मैं पर चढ़ीं छ, गुरु ज्ञानचन्द की सेना,
त्वै द्योलों, सोवन की जीण,
त्वै द्योसों, काँसी का घूँघर।
आज घोड़ा तिन भाई होण।
तेरा बाबू दादान मैं जांती नी सक्यो,
तू कखन मैं जीतण आई?
घोढ़ो निकालद, हात-हात की जीभ,
बैत<ref>बालिश्त</ref> -बेत का दाँत।
तब गाड़े भानू भौंपेलान, बेतुना<ref>बेत</ref> की छड़ी,
साधण लै गए माँकाली घोड़ो।
मारी मछुली उलार,
ओ जै लग वीं काली बादुली।
कनो रैगे नौ दिन, नौ राती अगास मा।
एक वेत टूटे, हैको<ref>दूसरा</ref> निकाले मालन,
घोड़ा पर पसीना ऐगे, नीला दाग पड़ी गैन।
ये घोड़ा मैं बिना मान्याँ नी छोंड़ौं,
मैं छऊँ हिण्डवाणी वंश को जायो।
तब बोलदू मांकाली घोड़ो-
अफू जौलूँ अस्वार, अब पाये मैंन।
पृथी मा ऐगे तब, घोड़ो मांकाली।
हे घोड़ा तिन, सच्चो भाई होण,
दुश्मनू की फौज मारी देण।

तब राजी ह्वैगे मांकाली घोड़ी,
कालूनी कोट मा जाण कू तैं।
ज्ञानीचन्द की बरात अड़ी छै-
तुम्हारा शैर<ref>शहर</ref> मा नी जूड़दत,
हम अपणा शैर मा जुड़ौला।
लड़ी-झगड़ीक ऊन तेरां<ref>तेरहवें</ref> रोज,
लाडी अमरावती, वेदी मा गाडयाले।
आम जसी दाणी छै, दिवा जसी जोत,
पूनो जसी चाँद बाँदू<ref>सुन्दरियों</ref> मा की बाँद।
मैन पैले<ref>पहले</ref> बोल्याले ज्ञानचन्द, मैं न छुई:
मैं राणी छऊँ, भानु भौंपेला की।
छै मैंना की माँगी छै, कना बैन वोदे।
मैंन पैले बोल्याले ज्ञानचन्द, मैं न छुईं,
लम्बी-लम्बी टाँगी तेरी मड़ोई तोड़ला।
बेदी का अग्वाड़ी<ref>आगे</ref> पिछाड़ी, डाले वींन बरछ्यों को घेर,
कै भी अमरा भितर नी औण देंदी।
तब उड़ी औंद मांकाली घोड़ो भानू लीक<ref>लेकर</ref>,
मारदू भानु भौंपेलो, घोड़ी पर चाबुक
मारयाले वीन माछी-सी उछाट।
तब का जायान क्या होण,
जब ज्ञानचन्द दगड़े, मेरी राणी फेरो फेन्याली।
झटपट-मा छयो घोड़ो सरपठ चलणू
अफू तैं समाली<ref>संभाल</ref> नीं सक्यों-
पड़ी गये वो बरछियों का घेरा मा।
चुभीत बरछी जिकुडी मा,
भानु भौंपेलो स्वर्गवास होये।
वैको छौ हिरक्यालो<ref>हल्के</ref> पराणी,

जिन्दगी ज्यान<ref>अन्त</ref> ह्वै, तरुणैं को विणास<ref>विनाश</ref>।
वैकी मिट्टी दुश्मनू कामणे रैगे,
रोंदी बराँदी<ref>तड़पती</ref> तब अमरावती
कनो देव मैं कू तैं रूठे?
तब मलासदी<ref>सहलाती</ref> वै सेयों<ref>सोयी</ref> मुखड़ी वीं का माता-
हे बेटा, मेरो कसूर नीं,
विधाता की लेखी मेटो नी सकेंदी!
जाँद तब विधाता चित्रगुप्त पवन रेखा
जख होला पंचनाम देव, पांच पाण्डव,
मामी पार्वती होली जख
तैको<ref>उसके</ref> पौन<ref>प्राण</ref> विधाता की सभा जाँदो!
हे मेरा विधाता मौत सबू की होंदी,
पर मेरी मिट्टी दुश्मन का सामणे रैगे!
तब भगवान विष्णु दया औंदी,
पाँच पाण्डव पौणा<ref>बराती</ref> पैट्या,
कुन्दी दुरपती मंगल्वैन<ref>मंगल गाने वाली</ref> पैटी<ref>चल पड़ा</ref>
ऐ गैन देवता कालूनी कोट।
भानु भौंपेला मा ऊँन शरील धन्याले,
तब वो जीतू<ref>जिन्दा</ref> होइगे,
इनी<ref>ऐसे ही</ref> जीती<ref>जागृत</ref> होयान सुणदी<ref>सुनने वाला</ref> सभाई।
तब माल घोड़ी मांकाला मांकली चढ़ीगे,
पकड़े पट पाखुड़ी वैने अमरावती की,
ऐंच चाड्याले!
घोड़ा मू मंडल<ref>दबा दिया</ref> वैन वो दल-बदल,
बैरी को मालन, तब एक नी रखे,
मान्या गए सजू कालूनी भी!
तब सासु औन्दी वेका पास-
अपणो भलो करे, मेरो करे बुरो!
अपणी जोड़ी बाँधे, मेरी जोड़ी मारे!
सासू जी बेटा दीक बेटा छऊँ
मन्याँ को क्वी नी, बच्याँ की दुनिया!
तब सजीगे अमरावती को, औलासरी डोला,
राजा की सजी जेबर पालंकी!
बाज्या ढोल दमौंरूं गायेन्दा माँगल,
चार दिन पुरुषू को नाम,
मालू का पवाड़ा रै गैन।

शब्दार्थ
<references/>