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भूले हुए काम पर लौटना / प्रमोद कौंसवाल

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भूले हुए काम पर लौटने का मतलब
दिल्ली लौट आना नहीं है
न फिर से कविताएँ लिखना
न ही फिर से नौकरियों के लिए
बार-बार की भाग-दौड़

गांधी, नेहरू और मार्क्स की जीवनियाँ पढ़ना भी
भूला हुआ काम नहीं हो सकता
और जो बिल्कुल ही नहीं हो सकता
सचमुच का लौटना
उनमें मेरी कुछ ख़ास-ख़ास बातें भी हो सकती है
तारा रारा मस्त कलंदर
जैसे मैं कभी कलंदर था
शराबख़ोर
रातें रंग-तरंग
 
इस सूची में फेरबदल हो सकता है
लेकिन इन दिनों का भूला हुआ काम
है फ़ुरसत से कुछ देर बैठना
यह याद करना कि मेरे गाँव में
एक रसोई है
क्या वहाँ होंगे आग और अन्न
यहीं पास रसाई के बाहर
गोबर की गंध महकती थी
और मेरी चाची
इस समय छांछ निकाल रही होगी क्या
इसे छककर हमारी याददाश्त
उतनी ही तरोताज़ा हो जाया करती
और वहाँ ऐसी कोई समस्या
नहीं होती पैदा कि कुछ भूल जाएँ
और फिर भूले हुए पर लौटना पड़े
काफी समय तक मैं सोचता रहा मैं
कहीं ठंडे पहाड़ों में जाऊँ जहाँ
अंगोरा ख़रगोश की जैसी गर्माहट हो
और जैसे ऊना भी जहाँ रात बिल्कुल
अपनी होकर उतरती है
उत्तरकाशी अपने भाई के पास
जहाँ हम कुछ सफ़ेद कुछ रंगहीन
आकाश के तले पसरे हैं
 
ये सब चीज़ें
इस क़दर भूली हुई हैं
इन पर लौटना मुमकिन नहीं
जहाँ पहुँचना कठिन नहीं
उसके लिए सब्र तो चाहिए
जैसे कोई बात चले
और पिताजी को उनकी हँसी मिल जाए
कई-कई साल पहले वाली
और मुझे उसका सुनना भी तो क्या बात
कोई ज़रूरत पड़े जाने की
और मुझे देखना मिल जाए उनका चलना
इतनी ज़्यादा चुपचाप
जैसे धरती पर ज़्यादा बोझ न पड़ जाए
और यह भी कि जैसे आप पूछ बैठें
बैठने पर बात करते-करते अचानक
चल जाने के बारे में भूल जाने के बारे में
कि 'कहाँ रहे पहाड़ इतने दिनों भूले हुए'।

(अंतिम पंक्ति कवि इब्बार रब्बी से साभार)