भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भेड़िए / संजय कुमार कुंदन

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:42, 30 जुलाई 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज का दिन अजब-सा गुज़रा है
इस तरह
जैसे दिन के दाँतों में
गोश्त का कोई मुख़्तसर रेशा
बेसबब आ के
फँस गया-सा हो
एक मौजूदगी हो अनचाही
एक मेहमान नाख़रूश जिसे
चाहकर भी निकाल ना पाएँ
और जबरन जो तवज्जों1 माँगे
आप भी मसनुई2 तकल्लुफ़3 से
देखकर उसको मुस्कराते रहें

भेड़िए आदमी की सूरत में
इस क़दर क्यों क़रीब होते हैं

1.ध्यान, 2.कृत्रिम, 3.औपचारिकता।