भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मंज़िल दूर नहीं अब / विशाल समर्पित

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:13, 12 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विशाल समर्पित |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मंज़िल दूर नहीं अब हमसे हम संभल रहे गिरते-गिरते

अधरों को तपती रेत मिली जब-जब नदिया-तट पर पहुँचे
हर चौखट पर मिली उपेक्षा जब-जब जिस चौखट पर पहुँचे
बोझ नेह का सर-पर धर-कर हम ऊब रहे फिरते - फिरते

भोला मन मुझसे कहता है सबसे रिश्ते तोड़-ताड़ लो
जिसमे सब अपने ही दिखते ऐसा दर्पण फोड़-फाड लो
मन - मेघों के षड्यंत्रो से हम बच निकले घिरते-घिरते