भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मतीरे / नरेश चंद्रकर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:45, 21 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेश चंद्रकर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत बरस बाद
चैत की ऐन दुपहरी में दिखा वह
लम्बे अन्तराल बाद मिले मित्र की तरह
बातों में पीठ पर धौल जमाते हुए
बहुत घुले स्वर में
गहरी मीठी नीली भाषा में
प्रेम का इज़हार करते हुए

यकीन नहीं हुआ इतनी करूण आवाज़ मतीरे की
इतना सघन आग्रह
इतनी आत्मीय चिरौरी
ज्यों घुटने के बल बैठकर चूमता है नायक

मैं चला लिए उसे अपने साथ
रास्ते भर बीते दिन घुमड़ते रहे
याद आया....

पाठशाला से लौटकर छ्बे में रखी कटी फाँकें जो दिखी थी
वे मतीरे की थीं
याद आया.......

गर्भवती पत्नी के लिए
भुवनेश्वर के कल्पना-छ्क से ढूँढ़े थे मैंने मतीरे
और सुन्दर दो सुड़ौल ढूँढ़ भी ले आया बाद में
याद आती रही फल के साथ धुली-पुँछी पुरानी बातें
मेरे आगे वह सायकिल भी निकल आई कबाड़ से
हैंडल पर जिसके नाम खुदा था नाना का

कैरियर पर फँसे थे दो मतीरे
और सम्भलते हुए घर पहुँचा था
बनती रही कुछ कृतज्ञताएँ मन में
इस फल ने दिया ओक से जल पीने जैसा सुख
इसने दिखाए नदियों से भेजे हरे रूमाल
यह मेरे साथ रहा पृथ्वी के प्रतीक-चिह्न सा

हरी-हरी धारियों के भीतर से
लाल-लाल मीठी रसीली हँसी के साथ
आज जब कटा मेरे घर मतीरा
किसी फल ने पहली बार कहा मुझ से
इतने बरस तुम क्यों भूल चुके थे मुझे !!