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मधुमय वासन्ती / प्रतिभा सक्सेना

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हिल उठी आम की डाल, कूक से गूँज गई अमराई,
फूलों के गाँवों में बाजी मधुपों की शहनाई!

शृंगार सज रही प्रकृति, ओढ़ कर चादर हरी हरी,
कञ्चन किरणों के घूँघट में, कुंकुंम से माँग भरी!
अलकों से मोती ढलक रहे शबनम बन,
पाहुने शिशिर को देते हुये बिदाई!

हँस उठे धरा के खेत-पात, पलकों में राग भरे,
आई सुहाग की धूम लिये वासन्ती फाग भरे!
लुट रहा अबीर- गुलाल दिशा अंचल का,
झर रही गगन से ऊषा की अरुणाई!

सुषमा मुखरित हो उठी मिल गईं नूतन भाषाये,
लहरों ने दौड-दौड कर जल में रचीं अल्पनायें!
लो, रुचिर भाव होरहे व्यक्त धरती के
चित्रित करने मधुमय वासन्ती आई!