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मन के भीतर / राजेश श्रीवास्तव

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मन के भीतर ही लड़ा जाता है
हमेशा एक लंबा अनवरत युद्ध,
तब कहीं जाकर जन्म लेता है, कोई एक महावीर, कोई एक बुद्ध।

भीतर ही युद्ध, भीतर ही फैली शांति
मैदानों से पूर्व भीतर होती है क्रांति
कलियुग, द्वापर, सतयुग अथवा त्रेता हुआ
जो स्वयं से जीता है, वही विजेता हुआ
सैंकड़ो युद्ध जीत कर भी पराजित है जो हार गया अपने ही विरुद्ध।

मात्र सर्प ही नहीं होते चंदनों के बीच
बोलती है खामोशी भी क्रंदनों के बीच
लहर का रूप ले नदी की पीड़ा डोलती है
पथराई रेत भी अक्सर बहुत बोलती है
तोड़कर तटों की सीमाएं, खोल दे मार्ग जो अब तक रहे अवरुद्ध।