भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन के भोर / रामकृष्ण

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:41, 3 मार्च 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तोर चुप्पी अनोर हो गेलो
रात करिआ से गोर हो गेलो
का हूँ, मन के भरम पाल-पोस के अप्पन
एगो लत्तर इयाद के सरेख कइली हल।
साज के, सुरके न, कनहूँ से राग के असरा,
तोरे आँगछ से अन्हरिओ इंजोर हो गेलो॥
ओठ से बात जब छलक जैतो तब कहिह,
गीत हिरदा में जब धमक जैतो फूल निअन
गन्ह के छाँह से सिरजल सिनेह के छँहरी
जेठ के लूक-पहर जुड़-झकोर हो गेलो॥
गुदगुदी मन के भरम खोल सबके कह देतो,
तोर मातल मुठान से अइसन लग रहलो।
अब, बहाना बना के मत जिआन बेर करऽ।
तोर अँचरा में हमर मन के भोर हो गेलो॥