भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मरे हुए जूते / संजय शेफर्ड

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:14, 7 मई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय शेफर्ड |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मरे हुए जूतों की शक्लें
अब मुझे बिलकुल भी याद नहीं रहती
फिर भी मेरी सात साल की मासूम बिटिया
हर रोज़, अलसुबह दौड़े-दौड़े आती
और कहती है
दादा आज सुबह भी बाज़ार में
कुछ मरे हुए जूते मिले हैं
छत-विछत, ज़ख्मी
खून में सने और लहूलुहान
पुरबाहिया काकी की देह की ही तरह
मन को झकझोर देने
आत्मा को कपकपाने की स्तिथि में
लग रहा है, लग रहा है
कल भी एक इंसान घर से निकला होगा
और फिर घर नहीं लौटा होगा
एक दिन यही सूचना
मेरी पड़ोसी की बिटिया लाई
दादा आज बाजार में
किसी मासूम बच्ची के
कुछ मरे हुए जूते मिले हैं
छत-विछत, ज़ख्मी
खून में सने और लहूलुहान
मेरी आंखें पथरा गईं
पर मेरी बेटी उस दिन के बाद
कभी घर नहीं लौट सकी
कभी- कभी सोचता हूं
मेरी उस सात साल की बेटी की
उम्र क्या होनी चाहिए थी
जो समय से दो महिने पहले पैदा हुई
बीस साल पहले जवान
और दो सौ साल की उम्र में
मरे हुए जूते की एक शक़्ल बन गई
क्या क्या कोई बताएगा ;
मुझे मेरी सात साल की बेटी की उम्र ?
जो सात साल की उम्र में
अक्सर तेरह नंबर के जूते पहनती थी
उसकी कुछ जूतियां अभी भी मेरे पास हैं
परन्तु, मरे हुए जूतों की शक्लें
अब मुझे बिलकुल भी याद नहीं रहती...