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महराई राग / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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249.

सुमिरु सुमिरु मन सिरजन हार। जिनि कइले सुर नर सरग पतार॥
रवि ससि अगिन पवन कइले पानी। जिय जंतु खनि खनि अनि अनि वानी॥
धरती समुद्र वन पर्वत सुमेरू। कमठ फनिंद्र इंद्र वैकुँठ कुवेरू॥
गुरुके चरन-रज सिरवर चढ़ाई। जिनलेले भवजल वड़त बँचाई॥
देवता पितर वरनेल कर जोरी। सेवा लेवि मानि अलप वुधि मोरी॥
जँह लगि जगत भगत अवतार। मोरे त जिवन धन प्रान-अधार।
तिरथ वरत चरो धाम सलिग्राम। माथे हाथ परसि करेलाँ परनाम॥
छोट बड जिय जंतु जँह लगि झारी। बकसि बकसि लेहु ऐगुन हमारी॥

विश्राम:

महरावै सहरैया भय्या गावल धरनीदास।
मन वच कर्म सकलते भैया मोहि महराकै आस॥1॥

एक दिन मोर मन चढ़ल पहार। गावकै गहरि देखि बहुत पसार॥
अगनित गइया भैय्या गनि न सेराइँ। दुहु दिसि गोधन रहेल छितराई॥
डँगरि डिँगरि कतो ओसर दुहान। अकरि बकरि कतो बहुत वियान॥
बहिल गभिन कतो सरिल इनोइ। मन भरि भरि दुध गइकै सँदोह॥
बछि अधि अछि देखो बछल बछेल। लेरुआ तछरुआ मगन मन खेल॥
ललि गोलि ध्वरि पियरि कत कारि। कजरि सँवारि कत कबरि टिकारि॥
कत सिँगहरि कत देखलि मुरेर। गोरुअ चरेल सव निकट नियेर॥
नर केले धरति जे उपर अकास। महर चलेल तँह ग्रइया गोआस॥

विश्राम:

उपजल घास लहालही, सितल छँहरि पनिवास।
महर न जियर देखल वहि ठहरा, चित मोर भइल उदास॥2॥

चौपाई:

जो लगि न देखल गहरि चरवाह। जनु मन परि गैले जल अवगाह॥
सोचि सोचि मनुव रहेल गुरुबाइ। तेहि अवसर केहु मुरलि बजाइ॥
मुरलि सुनत मन भैल खुशिहाल। रहलिँ भिछुक जनु भइलिँ भुआल॥
धुनि सुनि मनुव उपर चढ़ि गेल। तँहव देखल एक अदभुद खेल॥
बिनु रवि ससि तँह होल उँजियार। रिमि झिमि मोतिय वरिस जलधार॥
गरज सघन घन सुनत सोहाय। चहुँ दिसि बिजुलि चमकि चलि जाय॥
झरि झरि परेल सुरँग रँग फूल। फुले फुले देखल भँवर एक भूल॥
चक एक घुमेल उडेल एक साँप। नहि तँह करम भरम पुनि पाप॥

विश्राम:

तँह पर ठाढ़ देखल एक महरा, अवरन वरिन न जाय।
मन अनुमान करत जन धरनी, धन जेहु सुनि पतियाय॥3॥

पँव दुहु पडव परम झलकार। टुरहुर श्याम तन लमल हँकार॥
लमहरि केसिया पतरि करिहाँव। पियरि पिछौरि कटि वरनि न आव॥
चनन कै खोरिय भरल सब अंग। घर अनगिनत वहैल जनु गंग॥
मथे मनि मुकुट लकुटि सुठिलाल। झिनव तिलक सोभै तुलसिक माल॥
निक नक पतरि ललहुँ बडि आँख। मकुट झहर एक मोरव कै पाँख॥
कत दुनो कुँडल लटकि लट झूल। दढ़ि मोछ नुतन जैसन मखतूल॥
प्रफुलित वदन मधुर मुसुकात। तेहि छवि-उपर धरनि वलि जात॥
मन कैल दंडवत भुइँ धरि सीस। मथे हथ देइ प्रभु दिहल असीस॥

विश्राम:

महरा हाथ बिकाइल मनुवा, भैले महराकै दास।
सब दुख दुसह मेटाई गइलेँ, साधु-सँघति सुख-वास॥4॥

महरा कै डगर कहेला पर चारि। देखहु चतुर नर हृदय विचारि॥
जत जिय जँतु तत महराकै गाय। केहु जनि मारै भइ केहु जनि खाय॥
यहि जनि जन केहु मसल कै बात। बुझल परिह पुनि सेहु रँग तात॥
साँच कहै साधु जन झूठ कहै चोर। दाँतन के सुख जनि फारहु पटोर॥
महरा कै गइया करिहै प्रतिपाल। महरा करिहै पुनि तोहि खुशिहाल॥
महरा के गइया करिहेँ जिन खून। ताहि खुने महरा करिहेँ सकचून॥
जैसन अपन जिय तैसन परार। हाड चाम माँस नहि मानुष अहार॥
धरि दया धरम सुमिरि लेहु राम। काहे धन खोवहु तजहु कोहे धाम॥

विश्राम:

साँच वचन मन धरि लेहु प्रानी, झुठ देहु फटकि पछोर।
ऐसन समैया फिर तहि पैवा हो, अब जनि लावहु खोर॥5॥

करुआ जे लगैल कहल कछुमोर। करि न देखहु मन अपन अटोर॥
पानि बुलबुल उपजहि बिनसाँहि। देह धरि धरि सब मरि मरि जाँहि॥
अकसर चलन दुसर नहि केहु। दिन चारि चारि सब करि करि लेहु॥
छोहनि अठारह दल छपन करोर। देहु न ले गैलै सँग सैना बटोर॥
जिनहु कहल निज कुल परिवार। सेहु न भइले केहु संग जनिहार॥
गढ़ मढ़ि महल बहल हय हाथि। इनकै करहु बलु संग नहि साथी॥
सोना रूपा अथर पथर हथियार। केहु न लेगैले सँग सुइ मिकदार॥
देह गति देखत पटहु निज आँखि। तैहि पर आनहि बोलावुहु साखि॥

विश्राम:

भुईं मरकट मुठि अटकल तैसे भटकि रहल संसार।
जिन जिन साधुन संघति धैलेँ, उतरि गइलैँ भवपार॥
महरा के महरैया भैया, धरनी वरनि न जाय।
कहत सुनत सुख उपजैला हो, भाव भगति ठहराय॥6॥