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महा-वृद्धे / प्रतिभा सक्सेना

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सपना कैसे कहूँ,
सच लगा मुझे.
पास खड़ी खड़ी,
कितने ध्यान से
देख रहीं थीं तुम!
त्रस्त-सी मैं,
एकदम चौक गई .


श्वेत केश-जाल,
रुक्ष, रेखांकित मुखमंडल,
स्तब्धकारी दृष्टि!
उस विचित्र भंगिमा से अस्त-व्यस्त,
पर आतंकित नहीं .
जान गई कौन तुम,
और तुम्हारा संकेत!


इन चक्रिल क्रमों में,
मिली होगी कितनी बार
किसे पता,
हो कर निकल गई होगी
अनजानी, अनपहचानी
पर ऐसे सामने
कहाँ देखा कभी!


स्वागत करूँगी,
सहज स्नेहमयी, महा-वृद्धे,
निश्चित समय
सौम्य भावेन
शुभागमन हो तुम्हारा,
समापन कालोचित
शान्ति पाठ पढ़ते


समारोह का विसर्जन,
कर्पूर-आरती सा लीन मन
जिस रमणीयता में रमा रहा,
वही गमक समाये,
धूमावर्तों का आवरण हटा
तुम्हारा हाथ थाम
पल में पार उतर जाए!