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महाराणा संग्राम सिंह / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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संग्राम सिंह
नर - सिंह - दल में ऐसा नृसिंह था
जिसके वंश परम्पराक्रम में परम पराक्रम था ,
जिसने दहकते अग्नि - युद्धों में काट - काटकर
निज पर्वत - काया का अंग - अंग होम कर दिया था ;
जिसने कभी व्याघ्र - नेत्र
कभी अजगर - भुज
और kbhee गज - जंघा का माँस
समर्पित करके रण - कालिका को प्रसन्न किया था ;
युद्धों को जिया था ।

उसके समर - तप्त शरीर पर कटावदार घावों के
अस्सी तमगे झिलमिल खिल - खिल
जाज्वल्यमान नक्षत्रों की भांति मुसकराते थे ,
उसके शौर्य की लपलपाती बड़वानल से झुलस
क्षणों में रणों के उमड़ते तूफानी ज्वार
नतफणि हो जाते थे ;
उसके नीचे आते ही वेगवान अश्व
आकाशचारी पवन बन बतियाते थे ,
संग्राम से संग्राम का इन्द्र - सम नाता था ,
जब वह रणोंन्मत्त होकर लड़ता
तो खड्ग वज्र और हाथी ऐरावत हो जाता था ;
मदमाता था ।

जिसने
भयंकरतम से लेकर
साधारण तक का साधा रण,
उसके प्रचंड व्यक्तित्व के राजपूती ताप से
सैनिकों के बुझे शौर्य अंगारों की भांति
धू - धू धधकने लगते थे ,
मृतकों में प्राण जगते थे
कबंध उठ - उठकर लड़ने लगते थे ;
विपक्षियों की अक्षिओं में चकाचौंध होती
उसके शौर्य के सौर्य - मंडल के समक्ष
प्रत्येक शत्रु - ग्रह फीका था ,
वह देश के गौरव - ललाट पर अपने ही रक्त का
दिपदिपाता टीका था ;
नीका था ।

उसका चुना हुआ नर - सिंह - दल जब बढ़ता था ,
विरोधियों को अश्वों - तले रौंदता हुआ
विजयों के यश - चुम्बी कलशों पर जा चढ़ता था ;
वह अस्त हृदयों में प्रकाशमान सूर्योत्साह था
वह युद्धों में योद्धाओं के ओंठों पर 'वाह ' था
वह रिपुओं की छिदी छाती में 'आह ' था ,
तड़पती कराह था ;
था नहीं है
वह एक तेजस्वी चाह है
वह अब भी
शूरवीरों के लिए अमर मरण की प्रशस्त राह है ।

जो लौह दीवारों की भांति अभेद्य थीं ,अटूट थीं ,
रिपु की वे रक्षा - पंक्तियाँ
उसकी युद्धोद्धत दहाड़ों से ,प्रहारों से हर बार
छिन्न - भिन्न होकर टूटती ,
सर्व - ग्रासी विपदाओं में
उसके लिए मन की समरसता ही समर - सत्ता थी ,
आक्रामक आक्रमणों के अंगद - पद उखाड़ने में
उसकी कुशल शक्ति विवेकी थी ,
उसके निर्भीक सिंह - नेत्रों ने सदा भागते हुए
मरण की पीठ देखी थी १

मुंडों ,कबन्धों ,ध्वस्त रथों ,हताहत गजाश्वों
आहों, कराहों ,चीत्कारों
और दर्प - भरी ललकारों की यादों के बीच,
जब मृत्यु और सांगा के जीवन में निर्णायक द्वंद्व
घमासान चल रहा था,
भाग्य का अस्ताचल सूर्य ढल रहा था,
जब उसका आक्रमणों में तपाया हुआ
गौरवपूर्ण , गौर व पूर्ण चेहरा उतर आया था;
जिसका स्याह अन्धकार हर सैनिक के मुरझाये
मुख पर छितरा कर छाया था ,
मनों में तनाव था
दिशा - दिशा से बढ़ता मुग़ल - सैन्य - दबाव था ,
तब मरण से पराजित हो वह सिंह ऐसा थका
कि मूर्च्छना में गिरा भारत
सदियों तक न जाग सका ।।

(श्वेत निशा, १९९१)