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महावल्लीपुरम्: समुद्र-कथ / कुबेरनाथ राय

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[वक्तव्य : समुद्र इन कविताओं का विषय नहीं 'पृष्ठभूमि' मात्र है। विषय है 'मैं' इस 'मैं' में। 'समूह' भी स्थित है। इस कविता में 'मूड' की एकता नहीं, पर अविच्छिन्नता है। यों ही कविता बहुत कम लिखता हूँ। जो लिखता हूँ प्राय: फाड़ दिया करता हूँ। जानता हूँ कि मेरा मैदान गद्य है। मैंने गद्य की गदा हाथ में लेकर अवतार लिया है। पर कभी-कभी काव्य-वन में वैसे ही प्रवेश करता हूँ जैसे यक्षराज के 'सौगन्धिक-वन' में भीमसेन। यक्षों और किम्पुरुषों के कड़े पहरे के बावजूद क्रोध, शोक और करुणा के कमल चुन लाया हूँ। ये कवितायें १९६५ में मामल्लपुरम्, (महावल्लीपुरम्) के समुद्र के सान्निध्य में लिखी गयी हैं। ]

प्रभात

लहरों के उत्ताल घोड़े
गरजते उछलते कूदते प्रबल वेग
गर्दन उठाये, अयाल बिखराये
हरित वर्ण इन्द्रनील घोड़े
श्याम कर्ण घोड़े।
एक पर एक
पाँत पर पाँत
फ़ौज पर फ़ौज
लेते हैं टक्कर- तोड़ते हैं व्यूह
घटा बाँध चढ़ती आ रही
दिग्विजयी चंगेज़ की
अंतकवाहिनी।
प्रवाह कौन थामेगा?
कौन रोक सकता है
इस महामत्त क्रूर
पीत धूसर असुरों की अंतकवाहिनी
को?
एक उत्तर-शान्त और संयत,
'हमारी यह मौन कठोर
क्षमाशील धरती,
मनुजगर्भा वसुन्धरा।'

संध्या

हवाओं के कोड़े
पीटते हैं वरुण के सवार
बढ़ते हैं लहरों के घोड़े
पागल चिल्लाते हैं
सिर पटक जाते हैं
खाकर हवाओं के कोड़े।
ये हस्तिकाय लहरें
नीग्रो गुलामों सी शक्तिमान
बल और पौरुष मूर्तिमान
फिर भी चिल्लाती हैं मार खा
पीटते बरुण के सवार
इनके माथे हवाओं के
चुभते अङ्कुश
मुक्ता-गर्भ-शीश पर।
एक दिन-
वह होगा, जो कभी नहीं हुआ,
जब कालपुरुष फेंकेगा चैलेञ्ज
तब यह युगों से क्षुब्ध और क्रुद्ध
पीटी गयी पददलित
हस्तिकाय लहरों की सेना
आकाश के देवलोक को
गटागट लील जायँगी।
प्रतीक्षा करो-उस कल्पान्त की,
एक दिन वह पवित्र आह्वान आयेगा।

चाँदनी रात

समुद्र एक नायिका है
मुग्धा प्रगल्भा नायिका है
रात भर कामना की उद्याम लहरों में
तन और मन को निचोड़ती है
दोपहर को
रतिश्रान्त मौन पस्त पड़ी रहती है
संध्या के आगमन पर
फिर वह क्लियोपात्रा बनती है
जिसका तन और मन थकता नहीं
जिसका सौन्दर्य घिसता नहीं
जिसका सौन्दर्य चिरस्थायी है
पर उससे भी चिरस्थायी है उसका विष
जिसे मथ कर कोई भी निकाल सकता है
अमृत और लक्ष्मी
सुरा और उर्वशी
रम्भा और रतन
प्रतिगामी उच्चैश्रवा
अग्रगामी ऐरावत
ये सारे सहज जीवन के शत्रु
ये सारे विष के वंशज
जिन्हें पान करना, भोगना
सजना और सजाना
और जिनके दंश में मत्त रहना
यही है मनुज की चरम उपलब्धि
यही है मनुज की मुक्ति,
इसी में वह पाता है
अपने ईश्वर का पता और ठिकाना।
समुद्र एक नायिका है
विषधात्री, विषकन्या नायिका।

शान्त दोपहर : दूसरे दिन

आसमान में
तेज-तप्त यक्ष ने
रोशनी की हस्तिकान्त वीणा बजायी
मध्याह्न के रथ पर सवार हो।
कैसा सम्मोहन है!
ये गरजते चिघ्घाड़ते हाथी
भयंकर, विशालकाय, बीस हज़ार हाथी
सम्राट चण्डाशोक की उन्मत्त रणवाहिनी,
क्षितिज से दौड़ते शुण्ड उठा
वेग से आते थे अभी-अभी
और मेरी क्षमाशील धरा के
कलिंग-व्यूह से टकराते थे।
अचानक, यह वरुण की गजघटा
नील आसमान के अमित आभा
यक्ष की
हस्तिकान्त वीणा सुन
शान्त हो अचानक सो गयी।
क्या सम्मोहन है!
(तुम कहते हो दुपहर को
सागर कुछ शान्त हो ही जाता है।)
पर अब भी एक ऐरावत है,
कृष्णकाय पट्ठा ऐरावत है,
जो क्षुब्ध और जाग्रत है
मन की गुफा में निरन्तर गरजता है
कोमल हस्तिकान्त न सही!
है कोई निर्मम जृम्भकास्त्र
जो उसको सुला दे?

आत्मा के घाव : विदा

(क)
सागर, हम पराजित पीढ़ी के बेटे हैं
हमें रोष नहीं आता है
क्रोध नहीं आता है
हमें लाज है, न शर्म है
हम हैं डुण्डुभ दार्शनिक
गलित कीच खाते हैं
स्थितिप्रज्ञ कहाते हैं
और जब आवाहन आता है
तुम्हारी ही गरजता हुआ
रोब के, क्रोध के कोड़े पटकता हुआ
तो हम टाँगों में पूँछ चुरा
कूर्म-वृत्ति-महिमा गाते हैं
दर्शनकोपीन में मुँह छिपा
स्वयं अपनी नग्नता देखने से बच जाते हैं
सागर,
हम पतित पराजित पीढ़ी के बेटे हैं।

(ख)
सागर, तुम रत्नाकर हो
और हम हैं कौड़ी-कंजूस
एक एक कौड़ी पर एक एक जनम हारते गये
परसों, मेरे पितामह ने पिता को
दो कौड़ी में दुश्मन के हाथ बेचा था
कल, पिता ने मुझको एक कौड़ी में बेच दिया।
और आज
ऐसी तेजी से आदमी का भाव गिर रहा है
कि
मुझे भय है, मेरी सन्तान का दाम हो
सिर्फ कौड़ी का दाँत एक।
('वत्स, करोगे क्या? युग ही ऐसा है
आदमी कौड़ी का तीन हो गया!')
गो कि तुम रत्नाकर हो
गरज गरज सिंह ध्वनि से
बार-बार अपने अतल गर्भ के
रत्नों को लूटने की प्रेरणा देते हो
पर हम पौरुषहीन, कौड़ी के तुच्छ
हम केवल गुलाम, साहस नहीं रखते।
वंध्या रति
मोह मूढ़ तप
मायामृग-महिमा
इन सबके मयूर-पंख बाँधकर पूँछ में
आदमी अपना मूल्य घटाता जाता है
दिल को तंग बनाता जाता है।
मूल्य-विस्तार के लिए
दिल-विस्तार की शर्त है
दिल की मुक्तावस्था में ही
गन्दे जल पंक से
जीवन की विकृति से
छवि के रंग फूटते हैं
शोभा का बसन्त उतरता है।
क्षमा करो मित्र,
तुम निस्मीम मुक्त सागर हो
पर मेरा दिल कूप
तुम जैसा निस्सीम और मुक्त
सागरोपम नहीं बन पाता है
क्यों कि मैं हूँ
कौड़ी पर बिका हुआ एक अपदार्थ।

भरत वाक्य : लौह वृक्ष

मैंने देखा
ग़ाजीपुर में एक सड़क पर
जो टारी से ज़मानियाँ जाती है
लोहे का एक पेड़
एक कठोर मन-पेड़
उस पर है बर्रे का एक छत्ता
जो भभक भभक जलता है आधी रात
पर रहता है दिन भर मरा मरा शान्त
पछुआ पवन के वैरागी झकोरे
लू का क्रोध- अकारण प्रहार
और प्रेतग्रस्त आछी के फूलों की-
गँध का तीव्र व्यंग
सब कुछ बरदाश्त कर लेता है, और
रहता है दिन भर शान्त- मरा मरा।
यह करता है प्रतीक्षा उस प्रात की
जब हमारे बच्चे इसे खेल खेल में
खोद कर उकसायेंगे
और तब
रक्त पीतवर्रों की अग्निवाहिनी
टोली बाँध
समस्त क्रोध के साथ टूट पड़ेगी
नीचे की जमीन पर लू भरी वायु पर
गरबीली गंध पर
जो सनातन से प्रेत-ग्रस्त है
और क्षण भर में समाँ बदल जायगा
बदल जायँगे हमारे चेहरे
और साथ ही बदल जायगा
इस लोहे के पेड़ का कठोर सख्त चेहरा
वाल्मीकि का पाप-मोचन हो जायगा
और इसी सूखी लौह शाखा से जनमेंगे
कोमल नरम टूसे, जिनसे
हमारे, तुम्हारे, और उसके, और उसके
बच्चे मिलजुल खेलेंगे।