भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ फिर रोई / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:26, 8 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह=ज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे बाद
पैदा हुआ था
मेरा भाई
घर में दौड़ गयी थी
खुशी की लहर
मुझसे बड़ी भी
बहनें ही थीं
मेरे जन्म पर माँ ज़ार-ज़ार रोयी थी
पिता महीनों नहीं बोले उनसे
दादी ने खूब ताने मारे थे
माँ ने सीने से नहीं लगाया
कभी मुझे
भाई का जनम वरदान था माँ के लिए
पिता ने उन्हें जेवर बनवाये
दादी ने सन्दूक की चाभाी सौंप दी
भाई बढ़ने लगा
माँ की गोद में बैठा
खींच देता था मेरी चोटी
और माँ झिड़कती थी मुझे ही
जब बड़ा हुआ
तोड़ने लगा सड़क के बल्ब
और घर के बरतन
माँ उसके पक्ष में खड़ी रही
फिर शुरू हुआ बार-बार उसके
स्कूल से भागने का सिलसिला
माँ मुस्कुराती रही
बारिश में वह बस्ते के साथ नहाता
नयी कॉपी-किताब के पन्नों से
नाँव और गेंद बनाता
शुद्ध घी में छनी अजवाइन वाली
नमकीन पूड़ी अचार से
चटखारे लेकर खुद खाता
कुत्तों को खिलाता
जो नसीब भी नहीं था
हम बहनों को
और उस दिन
मुझे मिला था ‘गोल्ड मैडल’
पुलिस ने घर पर छापा मारा
और भाई के कमरे से निकला
गैर कानूनी हथियार
भाई भाग गया था
माँ दूसरी बार
ज़ार-ज़ार रोयी।