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मां और बच्चा / नंद भारद्वाज

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एक उम्मीद की तरह धारण करती है
जिसे मां अपनी कोख में
अपनी चिन्ताओं से दूर रखना चाहती है
बच्चे की भोली नींद
सहमी संज्ञाओं और अनाम आशंकाओं में घिरी
जीती है उसी की सांस में हर पल
 
 
कोख से अलग होते ही बदल जाती हैं
उनके बीच की सारी अन्तःक्रियाएं
वही अवयव एक निरापद आकार में
रचता है अपना न्यारा अन्तर्लोक
किसी उल्का-पिण्ड की तरह
अनंत आकाश में विचरता है दिशाहीन
मां, फकत् रीझ भर सकती है उसके रास पर
 
 
उसकी हर इच्छा में खोजती अपना अक्स
वह दूर तक बनी रहना चाहती है
उसी की दुनिया में अन्तर्लीन
कोई और विकल्प रहता ही नहीं शेष
उसकी आंख में!
 
 
जब किसी अनचाहे आघात से
आहत होती हैं यह हंसती-हुलसती दुनिया
कभी मंदिर कभी मस्जिद
कभी ईश्‍वर-इलाही के नाम पर
बेवजह औरों को आहत करने का
हेतु बनता है जब उसका अपना अंश
सिहर उठता है मां का रिसता कलेजा
वह कलपती है रोती है आखी रात
कोसती है मां अपनी होनी को ताउम्र!