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मानुष देही / लीला मामताणी

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तूं कर न मिठा अभिमान-मिली थी सुहिणी ज़िंदगी वरी
विसारे वेहु न वाइदा-कर भॼन का घड़ी

सुबह जो गुलु टिड़ियो हो चमन में
कोमायल सो ॾिठुमि शाम आई
केॾो नाजु करियूं था बदन ते
रहे साॻी न सूंहं सफ़ाई।
हीअ दुनिया अथेई धोखे भरी
कर सतसंग का हिकड़ी घड़ी

तूं दिलगीर थीउ त दीवाना
नको विश्वासु लाहि को साईंअ मां
छो थो ॿाहिर तूं भिटिकीं प्यारा
‘निमाणी’ लहु ॻोल्हे लहु प्रीतमु अंदर मां
खोले ॾिसु तूं त दिलि जी दरी
कर सत्संग तू हिकड़ी घड़ी।