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मिट्टी को प्रणाम / हरीसिंह पाल

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गाँव की मिट्टी
को प्रणाम!
उसकी सौंधियाती गंध
आज भी मन-मस्तिष्क
में समाहित है
वह मिट्टी का घर
जिसमें जन्म हुआ
पुरानी दीवारों से झरती मिट्टी,
उड़ती मिट्टी का स्पर्श
तन को छूकर अपनापा जोड़ गया
घुटनों के बदल रेंगते हुए
सीखा चलना, मां की गोद के लिए
घिसटना सीखा,
फिर जमीन की मिट्टी को चाटना सीखा
मिट्टी का स्वाद, मां के दूध से कुछ अलग था
यही तो वो स्वाद जाने थे बचपन में
एक जन्मदात्री के दूध का
दूसरा धरती मां का।
फिर इसी मिट्टी में
नन्हें-नन्हें पद-चिन्ह बनाए
खेल-खेल में खुद ही बिगाड़े
अंगुली से मिट्टी पर
अनजान और अनाम आकृतियां बनायीं
जो बाद में अक्षर बनाने
के काम आयीं।
उस मिट्टी ने
बचपन में प्रतिरक्षण का काम किया
किसी ओझा सयाने, पंडे-पुजारी ने
रजकण को अभिमंत्रित कर
साधारण से गंभीरतम रोगों तक
छुटकारा दिलाने का उपक्रम किया था
रोग तो ठीक हो गया या घाव भर गया
इसी मिट्टी के बल पर।
मिट्टïी में आकृतियां खींचकर
सजाए और संवारे भविष्य के सपने
जो बने कम, चूर-चूर ज्यादा हुए
उसी मिट्टी पर शायद
किशोरावस्था की प्रेमिका का भी नाम
उकेर दिया और मन साधते रहे
पर उससे बात तक न हुई।
चौमासे में, पानी भरे खेतों की मेंड़ पर
दौड़ते हुए, मिट्टी पर पैर साधते हुए
आगे बढ़े थे, तब इस मिट्टी ने ही
बल दिया था, चलने का, फिर दौडऩे का
और फिर सुस्ताने का
जेठ की लू और धूलभरी आंधी ने
भूगोल का व्यावहारिक ज्ञान कराया था।
विद्यालय जाते हुए
और खेत पर जाते हुए
या वैसे ही मौज-मस्ती के लिए घूमते हुए
इन्हीं रजकणों ने अपना अस्तित्व जताया था
ये रजकण कितने मुंह में गए
और कितने आंखों में
इसका हिसाब कोई नहीं।
लगता है खाने से ज्यादा मिट्टी
चबाई थी और यह शरीर बना है
अपने गांव की ही मिट्टी से
इसी मिट्टी में
हंसते, खेलते-मुस्कराते
हठीलें, गर्वीले, इठलाते,
मदमाते शरीरों को मृत्युपरान्त
मिट्टी होते देखा है।
लोगों ने खेत बांटे, मकान बांटे
धन-संपत्ति बांटी, कुछ न बेटे-बेटी
और कुछ न मां-बाप ही बांट लिये
पर कोई बांट पाया है मिट्टी को
इसे बांटने वाले भी एक दिन मिट्टी में मिल जाते हैं।
बंटवारा रह जाता है, जमीन पर
मन बंट जाते हैं, पर मिट्टी नहीं बंट पाती
बंट भी गयी तो फिर मिलकर
एक हो जाती है मिट्टी।
मिट्टी मेरे खेत की रही हो,
या फिर शहर की
मिट्टी-तो-मिट्टी ही होती है
सिर्फ गंध का ही तो फर्क होता है
गांव की मिट्टी सौंधियाती है
तो शहर की मिट्टी गंधियाती है
डीजल पेट्रोल और धुएं की गंध से।
मकान यहाँ भी बने हैं
झुग्गी झौपड़ी से लेकर बहुमंजिली इमारतों तक
पर क्या मिट्टी के बिना
इनका कोई अस्तित्व भी है?
शायद नहीं, एक-न-एक दिन धराशाही होकर
इन्हें मिट्टïी में ही मिल जाना है।
क्या इस मिट्टïी से कभी उऋण
हुआ जा सकता है?
क्या इसका स्वाद भुलाया जा सकता है,
और इसका स्पर्श झुठलाया जा सकता है?
यह मिट्टी है महान
जो हमें जीवन भी देती है,
और अंत में अपनी गोद में शरण भी
यह मिट्टी प्रणम्य है।