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मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ / फ़कीर मोहम्मद 'गोया'

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मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ
इक पर्दा-नशीं का मुब्तला हूँ

तेरी सी न बू किसी में पाई
सारे फूलों को सूँघता हूँ

आईना है जिस्म-ए-साफ उस का
क्यूँकर न कहे मैं ख़ुद-नुमा हूँ

इतनी तू जफ़ाएँ कर ने ऐ बुत
आख़िर मैं बंद-ए-ख़ुदा हूँ

अब तो मुझे ग़ैब-दाँ कहें सब
मैं तेरी कमर को देखता हूँ

बुलबुल है चमन में एक हम-दर्द
मैं भी किसी गुल का मुब्तला हूँ

‘गोया’ हूँ वक़्त का सुलेमाँ
परियों पर हुक्म कर रहा हूँ