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मुकम्मल शेर / अमित गोस्वामी

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बमुश्किल मिलने वाले
क़ुर्ब के लम्हों को
यकजा जोड़ कर जो थी सजाई
उस पिघलती शाम
मद्धम रोशनी में
रेस्त्राँ की मेज़ पर
जब चाँद मेरे साथ बैठा था
मसाला चाय की चुस्की पे
उसके जुड़वाँ लब इक दूसरे से मिल रहे थे
तब हमारे हिज्र की मजबूरियाँ मिसरों में लिपटा कर
उसे इक शेर मैंने यूँ सुनाया था

तुम्हारे नाम से वाबस्ता है ‘दूरी’ कुछ इस हद तक
तुम्हारा नाम लूँ तो लब भी आपस में नहीं मिलते

मेरा ये शेर सुनकर उसने थोड़ी देर सोचा
और फिर धीरे से अपना नाम होठों पर सजाकर
उसने मेरे शेर की तसदीक़ कर दी
और मेरा लिखना मुकम्मल हो गया था