भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझको आवारा कहता है / शंकरलाल द्विवेदी

Kavita Kosh से
Rahul1735mini (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:29, 28 नवम्बर 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझको आवारा कहता है

जब से इस दुःखिया बस्ती की पीड़ा मैंने गले लगाई-
तब से यह बेरहम ज़माना, मुझको आवारा कहता है।।

बन्दनवार बँधे द्वारों से, जब देखीं लौटी बारातें।
हल्दी चढ़ी किसी दुलहिन के साथ भीगती रोती रातें।।
जब मण्डप के मूक रुदन पर दीवारें तक तरस रही थीं-
आँगन में तुलसी की अँखियाँ, बेमौसम ही बरस रही थीं।।

जब-जब व्यर्थ बहा रो-रो कर, सूजी अँखियों से गंगाजल-
अपने सपन नहीं नहलाए, अपनी प्यास नहीं दुलराई-
तब से सावन का हर बादल, मुझको अंगारा कहता है।।

धूल भरे ये गाँव, पुरातन गौरव के अवशेष हमारे।
अन्तिम श्वास सहार रहे हैं, जैसे-टूटे हुए किनारे।।
जिन अँधियार भरी गलियों में सूरज आने में शरमाया-
उनमें दिये जला कर मैंने, इस उदार मन को बहलाया।।

अपने लिए सभी जीते हैं, एक अगर मैं नहीं जिया तो-
डगर-डगर में बिछे शूल चुन-चुन जब से आग लगाई-
तब से उपवन का उपवन ही, मुझको बंजारा कहता है।।

भले ‘नंदिनी’ के क्रन्दन पर, पिघल-पिघल जाएँ प्रतिमाएँ।
पर ‘दिलीप’ के बेटे, अपनी आँखों में आँसू क्यों लाएँ?
अब निराश लौटा देते हैं- निर्धन की पूजा की थाली।
चाँदी के जूतों की केवल करते हैं मन्दिर रखवाली।।

तन के गीत अधिक गाने से, मन को कालिख़ लग जाती है-
ऋषियों की यह पावन वाणी, अपनी भाषा में दुहराई-
तब से यह नवीन युग मुझको, बीता पखवारा कहता है।।
-११ जून, १९६४