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मुझको भी इंग्लैंड ले चलो / शैलेन्द्र

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मुझको भी इंग्लैंड ले चलो, पण्डित जी महराज,

देखूँ रानी के सिर कैसे धरा जाएगा ताज !


बुरी घड़ी में मैं जन्मा जब राजे और नवाब,

तारे गिन-गिन बीन रहे थे अपने टूटे ख़्वाब,

कभी न देखा हरम, चपल छ्प्पन छुरियों का नाच,

कलजुग की औलाद, मिली है किस्मत बड़ी ख़राब,

दादी मर गई, कर गई रूप कथा से भी मुहताज !


तुम जिनके जाते हो उनका बहुत सुना है नाम,

सुनता हूँ, उस एक छत्र में कभी न होती शाम,

काले, पीले, गोरे, भूरे, उनके अनगिन दास,

साथ किसी के साझेदारी औ' कोई बेदाम,

ख़ुश होकर वे लोगों को दे देती हैं सौराज !


उनका कामनवैल्थ कि जैसे दोधारी तलवार,

एक वार से हमें जिलावें , करें एक से ठार,

घटे पौण्ड की पूँछ पकड़ कर रुपया माँगे भीख,

आग उगलती तोप कहीं पर, कहीं शुद्ध व्यापार,

कहीं मलाया और कहीं सर्वोदय सुखी समाज !


रूमानी कविता लिखता था सो अब लिखी न जाए,

चारों ओर अकाल, जिऊँ मैं कागद-पत्तर खाय?

मुझे साथ ले चलो कि शायद मिले नई स्फूर्ति,

बलिहारी वह दॄश्य, कल्पना अधर-अधर लहराए--

साम्राज्य के मंगल तिलक लगाएगा सौराज  !

1953 में रचित