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मुझे खोज है त्रास की / स्वाति मेलकानी

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अनवरत हार का
अटूट क्रम
धरती के भीतर
सूखे óोतों में
निरन्तर जमा होता है
और
भरता है प्राण
नई धारा बहती है।
अभी
शेष है युद्ध
और मैं प्रस्तुत हूँ फिर।
मेरी स्वीकृति
मेरे जीवन का संबल है।
हार जीत के बंधन
पीछे छूट चुके हैं।
बस लड़ते रहने में
मेरी मुक्ति घुली है।
बीते जीवन से केवल
संतृप्ति मिली है
मुझे खोज है त्रास की
मैं स्वयं नदी हूँ।