भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं तो- / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:58, 12 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण' |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थरथरा उठता हूँ-
मैं तो!
सूँघते ही यह चपटी, नन्ही-सी, बहुत पुरानी सेंट की शीशी
अपने जीवन की प्रागैतिहासिक!
खुशबू जिसकी मरी नहीं, न जाने क्यों मरती ही नहीं,
ढकना खोने पर भी!
सूँघते ही इसे
कान में कुछ खनक-सी आती है!
पलकों के अन्दर के सपनों की गुलाब की झाड़ियों पर
उतर-सा आता है-
पहाड़ी पर उभरता-सा एक नवमी का चाँद!
ग्रीष्म की छत!
और मोगरे की कलियों का भीनी गंधों में उलझा गजरा!
कुलबुला उठते हैं कुछ मरमराते जालीदार सपने-
मेरे अन्दर!
ढलती रात की-सो बाँसुरी का स्वर
मुझे तैरा ले जाता है कहीं!
मैं सूँघता-सा रह जाता हूँ
इतने दीर्घ समय की-
निंदियारी
गन्ध!