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मैं भारत हूँ / विजय कुमार पंत

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मैं भारत हूँ...
एक राजा एक वंश..एक राज्य....
निर्माण, उत्थान पुनरुत्थान
और विध्वंस झेलता ..
मैं भारत हूँ...
हिंसा-अहिंसा के पराक्रम-परिवर्तनों
से गुज़रता ..
चीर हरण की त्रासदियाँ समेटे
अपने अंतर-विरोध से खेलता
मैं भारत हूँ...
बदलते समय की उन्मुक्तता
से निर्वस्त्र, किंकर्तव्यविमूढ़..ठगा
चरमराती..दीर्घ आचरण अट्टालिकाओं
के मलबे में फंसा-दबा
मैं भारत हूँ.....
मैं भ्रमित हूँ
सत्य और असत्य के बीच
सुनकर मर्माहत शब्द..
देखकर सभ्यताओं की ऊँच-नीच
अर्थों-अनर्थो के मेल मिलाप...
फलते-फूलते अभिशाप....
चमकते अंधकार से...मौन प्रकाश की सहमति
मैं भारत हूँ ..
कराहते रहना ..
शायद यही है मेरी नियति...