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मैं शोला तो नहीं फिर भी हूँ इक नन्हीं-सी चिन्गारी / डी. एम. मिश्र

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 मैं शोला तो नहीं फिर भी हूँ इक नन्हीं-सी चिन्गारी
 जो तारे टूटकर जुगनू बने उनसे भी है यारी

 हज़ारों बार यूँ पीछे मुझे हटना पड़ा फिर भी
 न तो उत्साह घटता है, न तो रुकती है तैयारी

 सुबह से शाम तक जो खेलते रहते हैं दौलत से
 उन्हें मालूम क्या मु़फ़लिस की क्या होती है दुश्वारी

 कभी भी बंद हो सकती, कभी छीनी भी जा सकती
 भरोसा क्या करें उसका वो है इमदाद सरकारी
 
 समझ पाया कोई यारो जु़बाँ क्या चीज़ होती है
 कभी तीखी, कभी प्यारी, कभी छूरी,कभी आरी

 सहारा था उन्हें बनना, सहारा ढूँढते हैं वो
 कहीं का भी नहीं रखती जवाँ बच्चों को बेकारी

 किसी मौसम के हम मोहताज हों यह हो नहीं सकता
 हमेशा ही खिली रहती हमारे मन की फुलवारी

ग़रीबों के भी दिल होता मेरे घर भी कभी आओ
बिछा दूँगा तुम्हारे रास्ते में चाँदनी सारी