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मोहि हरि! एक तिहारी आस / स्वामी सनातनदेव

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राग गूजरी, तीन ताल 12.7.1974

मोहि हरि! एक तिहारी आस।
और काहु को कहा भरोसो, जिनहिं लगी जम-त्रास॥
जनम-जनम बहु भाँति बिगोयो, आयो चैन न पास।
जब-जब आस करी काहू की तब-तब भयो निरास॥1॥
तुमही सबके सब कुछ प्यारे! पूजहु सबकी आस।
पामर जीव भूलि धन-जन में करहिं वृथा विश्वास॥2॥
परम उदार दयालु दीन-हित सबके दाता खास।
सबकों सब कुछ देहु, तदपि तुम करहु न कबहुँ प्रकास॥3॥
ऐसे प्रभुको छाँड़ि करे क्यों जन काहूकी आस।
यासों सबकों त्यागि प्रानधन! आयो मैं तुव पास॥4॥
चहों न जोग-भोग कोउ दूजो, करों न दूजी आस।
तुमसों तुमहिं चहों नँदनन्दन! करो आपुनो दास॥5॥
प्रीति-पगार चहों मनमोहन! रहे हिये रति-रास।
यही मजूरी, यही हजूरी, निरखों जुगल-विलास॥6॥