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यक़ीन की सल्तनत थी और सुल्तानी हमारी / हम्माद नियाज़ी

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यक़ीन की सल्तनत थी और सुल्तानी हमारी
दमकती थी दुआ की लौ से पेशानी हमारी

महकता था घने पेड़ों से वीराना हमारा
जहान-ए-आब-ओ-गिल पर थी निगहबानी हमारी

हमारे जिस्म के टुकड़े हुए रौदें गए हम
मगर ज़िंदा रही आँखों में हैरानी हमारी

हम इस ख़ातिर तिरी तस्वीर का हिस्सा नहीं थे
तिरे मंज़र में आ जाए न वीरानी हमारी

बहुत लम्बे सफ़र की गर्द चेहरों पर पड़ी थी
किसी ने दश्त में सूरत न पहचानी हमारी

किसी ने कब भला जाना हमारा कर्ब-ए-वहशत
किसी ने कब भला जानी परेशानी हमारी