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यती सम्मन् भएको हाल् / लक्ष्मीदत्त शर्मा पन्त

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यती सम्मन् भएको हाल् कि ऊ जानोस् कि मै जानू,
कि उस्तैक्कै भए जान्ला कि ऊ जानोस् कि मैं जानू ।।

यसो हेर्दा त बेसै छौं, दुवै एक् ठाउँ डुल्दैछौं,
मिलेका छौं कि फाटेका कि ऊ जानोस् कि मैं जानू ।।

मिजायस् वात औसर्मा हुँदा छौं एक नै हामी,
कहाँ सम्मन् छ भित्री पेच, क ऊ जानोस् कि मैं जानूँ ।।

सरम्‌ले बाँधियौं सार्हैे रती डेग् चल्न शक्तैनौं,
छ मन्सुव् मिल्न काँहाँ तक्, कि ऊ जानोस् कि मैं जानूँ ।।

ठूलो चोट् इस्कको पर्दा कलेजा भो छिया छीया,
भनौ मन्का कुरा काँहाँ, कि ऊ जानोस् कि मैं जानूँ ।।

यता बर्षन्छ मेघ् धारा, उता चम् चम् विजूलीको,
म इन्दू के भए हुँला, कि ऊ जानोस् कि मैं जानू ।।६


(नोट- पं. बदरीनाथद्वारा सम्पादित पुस्तक पद्यसङ्ग्रह बाट भाषाका तत्कालिन मान्यतालाई यथावत राखी जस्ताको तस्तै टङ्कण गरी सारिएको)