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यह जो हूँ मैं / श्याम बिहारी श्यामल

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शिथिल पड़ जाने से
ठीक एक क्षण पहले भी
धरूँगा धार
लगातार
रोशनी पर

हवा की चोंख जीभ पर
खोलेगी कंठ
युगों-युगों तक
मेरी कविता

जब ख़ूब तपेगी धरती
ताल-तलैया चटकेंगे
आधी रात बीतने पर
झुलसे पेड़ राहत लेंगे
तब हाथ बढ़ा चट्टान कोई
माथा मेरा सहलाएगी
उसके ही अंतस्थल में
सदियों तक
जिएगा मेरा अंश

नहीं लिखूँगा मैं मोर्चेबंदी में
पोथा-भर की वसीयत
या ख़्वाहिशों-भरी कविता कोई
मौत के बारे में नहीं है मेरे पास
कोई धाँसू दार्शनिक पहाड़ा

मैं खिलूँगा कहीं ज़रूर
फैल जाऊँगा यहाँ से वहाँ तक
गूँज उठूँगा समुद्र पर
और परबत-परबत
हज़ार-हज़ार कंठों में बस जाऊँगा

मैं जानता हूँ
अब नहीं रोका जा सकता मुझे
खिलने और गूँजने से
बसने और दिखने से