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रंग-भेद / कुमार विकल

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कभी—कभी यह शहर

मेरा भी होता है

कम से कम उस रोज़

जब कसौली की सुरमई पहाड़ियों पर पर पड़ी बर्फ़

एक साँवली लड़की के दूधिया दाँतों की तरह चमकती है

और शहर की धूप से अठखेलियाँ करती है.


मैं अपने कविता वर्ष से पहले की कविता लिखता हूँ

और सारे शहर म्रें फैल जाता हूँ

शराबखानों दोस्तों के अड्डों,प्रियजनों के घर

न जाने

कहाँ —कहाँ अपनी नवजात कवित को लिए फिरता हूँ.


जी मेरी कविता गौरवर्णा नहीं

ज़रा साँवली —सी है

एक संथाल बच्ची की तरह खुरदरी

जो बड़ी हो कर

गुलाबी फ़्राक नहीं पहनेगी

आइसक्रीम नहीं खाएगी

तितली नहीं कहलाएगी

नंगे पाँव ही अपने लोगोम के बीच भाग जाएगी.

…. लेकिन यह अपने लोग कौन होते हैं

किस तरह के घरों में रहते हैं

एक नंग—धडंग संथाल कविता के बारे में

किस तरह से सोचते हैं.


यह मुझे अगली सुबह

पता चलता है

जब अख़बार में

कसौली की बर्फ़ और मेरी कविता के बारे में

ख़बरें एक साथ छपती हैं


कसौली की बर्फ़ तो श्वेता बन जाती है

लेकिन मेरी कविता

एक शराबी पिता की

काली कलूटी बेटी कहलाती है

जिसके शरीर से संभ्रांत लोगों को

घटिया शराब की बदबू आती है.


उस समय मुझे पहली बार

अहसास होता है

कि इस शहर में ताँगे क्यों नहीं चलते

मैं किसी घोड़े की गरदन से लिपट कर रोना चाहता हूँ


और बहुत रोना चाहता हूँ

कि जब भी कोई कवि

अपनी कस्विता को

शहर के संभ्रांत हिस्से में लेकर जाता है,

वह हमेशा टूट कर वापिस आता है.


लेकिन मेरी कविता—

मेरी बच्ची

मुझे अपनी साँवली मुस्कान से हर्षाती है

उसकी आँखों में कोई सपना नहीं

एक विश्वास भरी भाषा है

वह मेरी छाती से चिपक जाती है

और उसके अँगों की मज़बूती

मेरी चेतना में फैल जाती है.