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रविवार / आरती 'लोकेश'

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चमकते रंगीन कुछ कंचे थे उसने बटोरे,
पत्थर के गिट्टे भी रख छोड़े थे इक कटोरे।
टुकड़े सहेजे थे काँच की टूटी चूड़ियों के,
कतरनें भी समेटीं फटी फ्रॉक गुड़ियों के।

कागज के खाली फटे पन्ने उठा लाई,
भर ली शीशी में कुछ नीली सी स्याही।
पेड़ से तोड़ टहनी बनाई थी उसने छड़ी,
खेल में मास्टरनी बनना चाहा था कड़ी।

वह रही इन्हें सँभाले सोमवार से शनिवार,
सोचा जी भर खेलूँ जब आएगा रविवार।
देख-देख अपनी तैयारी वह जीभर हर्षाई,
फिर जल्दी से कुछ सखियाँ बुला लाई।

सरकारी स्कूल में सुबह छ: दिन पढ़कर,
फिर बर्तन माँजती वह घर-घर जाकर।
रविवार को स्कूल न घर का ही काज,
सो आज रचाएगी वह खेल का साज।

पिट्ठू फोड़ के ठीकरे भी जमा न पाई,
कि मालकिन ने उसे आवाज़ लगाई,
‘सारे दिन खेलना बंद करो महारानी
मेहमानों के लिए बनाओ चाय पानी।