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रहा नहीं कहने को कोई अपना बूढ़ी आँखों का / वर्षा सिंह
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रहा नहीं कहने को कोई अपना बूढ़ी आँखों का ।
शायद ही पूरा हो पाए सपना बूढ़ी आँखों का ।
अपना लहू पराया हो कर जा बैठा परदेस कहीं
व्यर्थ हो गया रातों-रातों जगना बूढ़ी आँखों का ।
रहा नहीं अब समय कि गहरे पानी की ले थाह कोई
किसे फ़िक्र है कैसा रहना-सहना बूढ़ी आँखों का ।
जीने को कुछ भ्रम काफ़ी हैं, सच पर पर्दा रहने दो
यही सुना है मन ही मन में कहना बूढ़ी आँखों का ।
हवा चले चाहे जिस गति से फ़र्क भला क्या पड़ना है!
तय तो यूँ भी है अब ‘वर्षा’ बुझना बूढ़ी आँखों का ।