भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रहा नहीं कहने को कोई अपना बूढ़ी आँखों का / वर्षा सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:22, 23 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= वर्षा सिंह |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <Poem> रहा नहीं कहने क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रहा नहीं कहने को कोई अपना बूढ़ी आँखों का ।
शायद ही पूरा हो पाए सपना बूढ़ी आँखों का ।

अपना लहू पराया हो कर जा बैठा परदेस कहीं
व्यर्थ हो गया रातों-रातों जगना बूढ़ी आँखों का ।

रहा नहीं अब समय कि गहरे पानी की ले थाह कोई
किसे फ़िक्र है कैसा रहना-सहना बूढ़ी आँखों का ।

जीने को कुछ भ्रम काफ़ी हैं, सच पर पर्दा रहने दो
यही सुना है मन ही मन में कहना बूढ़ी आँखों का ।

हवा चले चाहे जिस गति से फ़र्क भला क्या पड़ना है!
तय तो यूँ भी है अब ‘वर्षा’ बुझना बूढ़ी आँखों का ।