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राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल / सुमन केशरी

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राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल
गाँव के बीचोंबीच
सरपंच के दरवाज़े के ऐन सामने गाँव के सभी जवान और बूढ़े आदमियों की मौज़ूदगी में
बिरादरी के मुखियों ने वह फ़ैसला सुनाया था...

जाने कब से गुपचुप बातें होती रही थीं
लगभग फुसफुसाहट में
जिनमें दरवाज़ों के पीछे खड़ी औरतों की फुसफसाहटें
भी शामिल थीं
धीमे-धीमे सिर हिलते थे
पर गुस्‍से या झल्‍लाहट में भी आवाज़ ऊँची न होती थी
मानो कोई साज़िश रची जा रही हो
हाँ, दो-एक आँखों से आँसू ढलके ज़रूर थे
जो तुरन्‍त ही किसी अनजान भय से पोंछ लिए गए थे
और रोने और सुननेवाले दोनों
दोहत्‍थी माथे पर ठोंकते थे
खुद को बरी कर
किस्‍मत को कोसते थे
फिर सिर हिलाते थे सुर में

उस शाम बच्‍चे
छोड़ दिए गए थे अपनी दुनिया में
देर रात खेलते रहे
छुआ-छुई, आँख-मिचौली, ऊँच-नीच और जाने क्‍या-क्‍या
क्‍या मज़ा था
आज कोई टोका-टोकी नहीं थी
यहॉं तक कि बछड़ो ने पूरा दूध पी लिया
पर बच्‍चे खेलते रहे अपनी ही धुन में
कोई बुलाता न था न खाने को न पढ़ने को
पर जब-जब खेलते बच्‍चे गए घर के भीतर
वह फुसफुसाहट एकदम गायब हो गई
और वे तुरन्‍त भेज दिए गए फिर से बाहर
जाने क्‍या बात थी
क्‍या कभी ऐसा होता है भला
कईयों ने दरवाजे के पीछे कान चिपकाए
या फिर भूख और नींद के बहाने घर में बैठ रहे
पर बेहया, इज्‍जत, भाग्‍य, मर्यादा जैसे
कुछ बेतुके शब्‍द सुनाई पड़े
जो कोई पूरी कहानी नहीं गढ़ते थे

उस रात शायद ही किसी घर में पूरी रसोई बनी
कइयों के पेट तो निन्दा-रस से भरे थे
तो कोई जीत की ख़ुशी में मगन थे
कुछ छोड़ जाना चाहते थे क़दमों के निशान
तो कुछ बन जाना चाहते थे धर्म, मर्यादा, संस्कृति की पहचान
दालान के कोने में लड़की खौफ़ज़दा थी
छिटकी सहेलियाँ थीं
और माँ मानो पाप की गठरी
सिर झुकाए खड़ी थी
बीच-बीच में घायल शेरनी-सी झपटने को तैयार
आँखों से ज्वाला बिखेरती
दाँत पीसती, दोहत्थी छाती पर मारती
सब कुछ बड़ा अजीब था
न तो लड़के ने कोई डाका डाला था
न किया था किसी का बलात्कार
और न लड़की ने किया था कोई झगड़ा
या फिर किसी बड़े का अपमान
बस किया था तो बस प्यार
ऐसे तो जिबह करने वाले जानवर भी नहीं बाँधे जाते, माँ
और तुमने बाँध दिया ख़ुद अपनी जाई को अपने हाथों
मानो कोख ही को बाँध दिया हो मर्यादा की रस्सी से
ऐसा क्या तो कर दिया मैंने
बस मन ही तो लग जाने दिया
जहाँ उसने चाहा
कभी जाति की चौहद्दी से बाहर
तो कभी रुतबे की खाई को लाँघ
तो कभी धर्म की दीवार के पार ।

हमने प्रेम…बस प्रेम को जीया
केवल प्रेम किया
और छोड़ प्रेम को कोई नहीं जानता
कि प्रेम की अपनी ही मर्यादा है
अपने ही नियम हैं
और अपना ही संसार…

लटका दो इन्हें फाँसी पर
ताकि समझ लें अंजाम सभी
प्रेम का, मनमानी का
मर्यादा के नाश का
संस्कारों के ह्रास का

तो सदल-बल सभी लटका आए उन मासूमों को गाँव के पार
पीपल की डार पर
सभी साथ थे कोलाहल करते
ताकि आत्मा की आवाज़ सुनाई न पड़े
घेर न ले वह किसी को अकेला पा कर
आखिर संस्कार और मर्यादाएं
बचाए रखती हैं जीव को
अनसुलझे प्रश्नों के दंशों से
दुरुह अकेलेपन से…

तो जयजयकार करता
समूह लौट चला उल्लसित कि
बच गयीं प्रथाएँ
रह गया मान
रक्षित हुई मर्यादा
फिर से खड़ा है धर्म बलपूर्वक
हमारे ही दम पे

जयजयकार, तुमुल निनाद, दमकता दर्प
सब ओर अद्भुत हलचल
लौटता है विजेताओं का दल
राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल ।