भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राजरोग से खुद जर्जर / राजेन्द्र गौतम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:25, 29 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र गौतम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गन्दे कूड़ेदानों को भी
क्यों कहते हो महानगर ।

फूलों वाले
गमले महकें
हर बँगले के अगवारे
सब ऋतुओं की
सत्यकथाएँ
कहते हैं पर पिछवारे
मूल्यों की
भ्रूणों-सी हत्या
त्यक्त पड़े वे मलबे पर ।

ख़ुशबू वाली
पोशाकों में
सजे हुए मैले तन-मन
करते सब को
सिद्ध नपुंसक
दीवारों के विज्ञापन
कहाँ रसायन बाँटेंगे ये
राजरोग से ख़ुद जर्जर ।

यों तो
नैतिक ही दिखता है
धोखे का भूरा दल-दल
थोड़े-से
खद्दर में लेकिन
छिपा हुआ पूरा चम्बल
संसद से
सड़कों तक सड़ता
आदर्शों का कचराघर ।