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रात अपनी स्याहियों से धो गयी है / विनय कुमार
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रात अपनी स्याहियों से धो गयी है।
खाल पत्थर की मुनव्वर हो गयी है।
घाटियों में दूर तक मुर्दा उजाला
बर्फ है या ओस थककर सो गयी है।
वक़्त का बर्ताव क्यों दुष्यंत सा है
क्या तुम्हारी भी अंगूठी खो गयी है।
अब उन्हें दुनिया बहुत कम दिख रही है
उम्र की दीवार ऊँची हो गयी है।