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रायपुर से / संजय अलंग

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लिखना है ख़त मुझे
उसे ही लिखूं
बिना फुटपाथ की रोड पर
कूड़े के ढेरों के बीच
बजबजाती नालियों से
पार्किंग विहीन सड़कें
ग़र्द, ग़ुबार, धूल, धूप
अव्यवस्था में व्यवस्था खोजता ट्रैफिक
नवीनता को तलाशता
और बेतरतीब होता जाता


सब लिखना है
सड़क पर पार्क कर गाड़ी

लिखूं सब
मार्क हो, फाईल होगा या
व्यवस्था को जन्म देगा
मेरे से ही पहल हो
इच्छा दब न पाए

क्राँति तो नहीं ही चाहता
अन्यथा, पड़ोसी की ओर झांकता
मैं क्यों रिस्क लेता
वे विचारें उनका काम
मेरा दायरा बना रहे
सब अपने-अपने दायरे बनाएँ
छोटे-छोटे राष्ट्र राज्य

प्रतिक्रिया, टोकना गन्दी बात है क्या?
फिर यूँ होता तो क्या होता का प्रश्न क्यूँ

खत में चीख भी आए
सुनाने वाली, बहरों को
इस बार बम नहीं
फाँसी तब देंगें क्या
पुष्प की अभिलाषा का क्या होगा
अच्छा हो, यह भी देशभक्ति कहलाए
इसी पर आक्रमण होगा

अन्य हेतु तो बने ही नहीं
अलंकरण, दिप-दिप करें, चमकें
चहबच्चों से बचा तो कूद कर निकलना होगा
शोर के पीछे आवाज़ तो होगी ही
आवाज़ के साथ मौन भी पढ़ा जाएगा
सम्पूर्ण से कम कुछ नहीं हो
ख़त आज ही होगा पूरा